Thursday 25 December 2014

मेरे सुपुत्र कुमार शिवा "कुश" की रचना -

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नहाकर नज्म निकली है, बालकोनी में आज अपनी ।
मेरी कलम को मिली वज्म , बालकोनी में आज अपनी ॥ 

बन गया चाय का कप, अचानक मदिरा का प्याला 
उम्र भर की फ़िक्र हुई ख़त्म,  बालकोनी में आज अपनी ।

 करे आजाद जुल्फों को, खींचकर तौलिया ऐसे 
गिरा बिजुली दिया है जख्म, बालकोनी में आज अपनी ।

गरदन झटक के जब जुल्फों को लहराया
हुई शीत लहरी सी सिहरन,  बालकोनी में आज अपनी ।

ek or kar k keshu unhe toliye se jhatka
baarish hui jhama jham, balcony me aaj apni

meri or mudi gardan to suraj pe se hata badal
satrangi hua mausam, balcony me aaj apni

nazar "kush" ki atak jaaye, juban kuch bhi na keh paaye
per lekhni fir bani humdam, balcony me aaj apni.!!



रविकर की रचना -


 नहाकर नज्म निकलेगी, अगर यूँ रोज छज्जे पर ।
 जमा दे वज्म गैरों की, गजल पुर-जोर छज्जे पर || ॥ 

> बने तब चाय प्याले की, अचानक हुश्न की मदिरा ।
> गिरे अखबार हाथों से, बहकता इश्क छज्जे पर ॥


> करे आजाद जुल्फों को, झटक कर तौलिया ऐसे
> गरजकर मेघ से बिजली, गिरे नि:शब्द छज्जे पर ।

> छुई पुरवा हुई सिहरन, बरसती बूँद नहलाये ।
> नहा के रेशमी काया, भिगो दे देह छज्जे पर ॥

> नजर रविकर अटक जाए, जुबाँ कुछ भी न कह पाये ।
> बदल ऐसा गया मौसम, हुआ मदहोश छज्जे पर ।।

Wednesday 10 December 2014

पगला बनकर के करें, अगर नौकरी आप-

पगला बनकर के करें, अगर नौकरी आप । 
सकल काम अगला करे, बेचारा चुपचाप । 

बेचारा चुपचाप, काम से डरना कैसा । 
बने रहो नित कूल, मिलेगा पूरा पैसा । 

करो काम का जिक्र, फ़िक्र क्या करना रविकर । 
उंगली चुगली सीख, मौज कर पगला बनकर ॥ 

Tuesday 9 December 2014

हक़ है झक मारौ फिरौ, बिना झिझक दिन रात-

अ 
मन भर सोना देह पे, सोना घोड़ा बेंच । 
राम राज्य आ ही गया, जी ले तू बिन पेंच ।1। 

हक़ है झक मारौ फिरौ, बिना झिझक दिन रात |
लानत भेजौ पुलिस पर, गर कुछ घटै बलात |2। 

सब मर्जों की दवा है, पुलिस फ़ौज सरकार । 
 सावधान खुद क्यों रहें,  इसकी क्या दरकार।3| 

जीती बाजी बाज ने, नहीं आ रहा बाज |
नहीं लाज आती उसे, चला लूटता लाज || 4||


गर गरिष्ठ भोजन करे, बन्दा बिन उद्योग ।
अल्प आयु में ही मरे, नर्क यहीं पर भोग ॥१॥ 

तन में कम पानी भरे, मन में भरे फितूर ।
पथरी, कथरी, थरथरी, पानी चढ़े जरूर ।२॥ 

मोच रोक दे कदम को, दम को रोके सोच ।
सोच मोच से बुरी है, रखो  सोच में लोच॥३॥ 






Wednesday 5 November 2014

भोगता उपभोक्ता -एक लम्बी कथा

भाग-१ 

जिनके आँख पड़े नहिं गर्द । कैसे जान सकें वो दर्द । 

ग्राहक भगवान होता है और भगवान की आँख में धूल सरे-आम झोंकी जा रही है । देवी तो आँखों में पट्टी बांधे है ; तो झोंकने वाले झोंकते रहते हैं धूल-गर्द ॥ 

बात २००३ के अप्रैल की है-केन्द्रीय विद्यालय का नया सत्र शुरू हो चुका था । १९८८, ८९ और ९२ में पैदा हुवे शिवा मनु और तनु को उनके स्कूल-बैग के साथ मोटर-साइकिल से स्कूल  पहुँचाने में असुविधा होने लगी थी । पारिवारिक अदालत ने एक कार खरीदने का मशविरा दिया । 

उस समय लगभग दो लाख में मारुति-८०० आती थी । डीलर की तरफ से ५००० की एसेसरीज भी अलग से गिफ्ट की जाती थी । २५ अप्रैल को मैंने मारुति के अधिकृत विक्रेता रिलायबल इंडस्ट्रीज को चेक से रूपये १ लाख २५००० का भुगतान अग्रिम के तौर पर कर दिया । शेष राशि के लिए SBI के लोन पेपर साइन करवाये गए ।  उनके एजेंट तमाल घोष और हमारे मित्र अरुण कुमार सिंह ने मुझे अग्रिम बधाई दी । परन्तु कार की डिलीवरी ९ मई से पहले ना हो सकी । कई बार हमने उनके शो रूम जाकर डिलीवरी देने की बात की परन्तु आल इण्डिया ट्रांसपोर्ट स्ट्राइक जैसे कई बहाने बताये गए । खैर हमारी मारुति हमारे घर आ गई । मैंने एक बड़ी राशि देकर कार अप्रैल में बुक कराई थी परन्तु मई में रूपये ५०००/- का वह गिफ्ट मुझे नहीं दिया गया । बताया गया वह गिफ्ट केवल अप्रैल के लिए ही था । 

नए वाहन के पूजन के लिए हम सपरिवार बैठ कर मंदिर की ओर चले । मेरे मित्र अरुण जी ही कार चला रहे थे-बच्चों ने गर्मी की शिकायत की तो उन्होंने फैन चला दिया । परन्तु यह क्या ??? कांच के छोटे बड़े टुकड़े हवा में तैरते हुवे बच्चों के चेहरे जख्मी कर गए । फैन तुरंत बंद कर दिया गया -मंदिर के बजाय हम डाक्टर के क्लीनिक पहुँच गए-
                                                                    क्रमश: 

Tuesday 7 October 2014

जीवन का वरदान, मातु की पहली कक्षा-

जिम्मेदारी   के   लिए,  हो   जाओ  तैयार,   

बच्चों के प्रति है अगर, थोडा सा भी प्यार |

थोडा सा भी प्यार,  बड़े विश्वास जगाओ--
सबसे पहले स्वयं,  नियम- संयम अपनाओ |
करो सदा सद्कर्म,  बाल-बाला आभारी |
नैतिक शिक्षा आज, हमारी जिम्मेदारी ||

स्नेहमयी  स्पर्श  की, अपनी  इक  पहिचान,  
बुरी-नियत संपर्क का, चलो  दिलाते  ध्यान |
चलो  दिलाते  ध्यान, बताना   बहुत  जरुरी,
दिखे  भेड़  की  खाल, बना  के  रक्खे  दूरी |
करो   परीक्षण  स्वयं, बताओ सीधा रस्ता,
घर  आये   चुपचाप,  उठा के अपना बस्ता ||

पहली  कक्षा  में  सिखा, सेहत  के  सब  राज,
और  आठवीं  में  बता ,  सब  अंगों  के  काज |
सब  अंगों  के  काज,  मगर   विश्वास  जरुरी,
धीरे - धीरे    शांत,  करो     जिज्ञासा    पूरी |
खतरे - रोग - निदान,  बताकर करिये रक्षा । 
जीवन का वरदान, मातु की पहली कक्षा ||

बच्चा मन चंचल बड़ा, दिखे ओर ना छोर । 
हलकी  सी   बहती   हवा,   आग   लगाए   घोर |
आग    लगाए     घोर,   बचाना    चिंगारी    से,
पढना  लिखना  खेल,  सिखाओ  हुशियारी  से |
कह  रविकर  समझाए,  अगर  पढने  में  कच्चा,
रखिये   ज्यादा  ध्यान,  बिगड़  जाये  न  बच्चा ||


बच्चों को भी हो पता,  होवेगा  कब  व्याह,
रोजगार से लग चुका,  तब भी भरता आह |
तब भी भरता आह,   हुवा वो  पैंतिस  साला--
बढ़  जाते  हैं  चांस,  करे  न  मुँह  को काला |
सही समय पर व्याह,  कराओ  उसका  भाई,
इधर-उधर  हर-रोज  करे  न  कहीं  सगाई  ||

Sunday 28 September 2014

प्रवचन दिया नरेंद्र ने, हिन्दु धर्म पर ख़ास-


सदी रही उन्नीस की, रहा सितम्बर मास । 
प्रवचन दिया नरेंद्र ने, हिन्दु धर्म पर ख़ास। 

हिन्दु धर्म पर ख़ास, बदल जाती वह काया। 
आया पुन: नरेंद्र,  विश्व को राह दिखाया । 

करे राष्ट्र उत्थान, संभाली जबसे गद्दी । 
करता जाय विकास, मिटाता जाय त्रासदी । 

Sunday 21 September 2014

कोड़े खाते तुर्क वो, जो इराक में रॉक-

कोड़े खाते तुर्क वो, जो इराक में रॉक । 
गरबा पूजा के लिए, फिर रगड़ो क्यों नाक । 

फिर रगड़ो क्यों नाक, समझ लो मित्र कायदा । 
मंसूबे नापाक, उठाते रहे फायदा । 

रविकर लव-जेहाद, राह में डाले रोड़े । 
जागा हिन्दु समाज,  नाक-भौं तभी सिकोड़े । 

Wednesday 3 September 2014

मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सगी बहन : भगवती शांता (पुनर्प्रकाशित)

रचयिता 
दिनेश चन्द्र गुप्ता "रविकर"पटरंगा , फैजाबाद उत्तर प्रदेश  

    

रविकर नीमर नीमटर, वन्दे हनुमत नाँह ।
विषद विषय पर थामती, कलम वापुरी बाँह ।

कलम वापुरी बाँह, राह दिखलाओ स्वामी ।

शांता का दृष्टांत, मिले नहिं अन्तर्यामी ।

बहन राम की श्रेष्ठ, उपेक्षित त्रेता द्वापर ।
रचवा दो शुभ-काव्य, क्षमा मांगे अघ-रविकर ।
( नीमटर=किसी विद्या को कम जानने वाला 
नीमर=कमजोर ) 


सर्ग-1
अथ-शान्ता
भाग-1 
अयोध्या  
सोरठा  
बन्दौं पूज्य गणेश, एकदंत हे गजबदन  |
जय-जय जय विघ्नेश, पूर्ण कथा कर पावनी ||1||

बन्दौं गुरुवर श्रेष्ठ, कृपा पाय के मूढ़-मति  
गुन-गँवार ठठ-ठेठ, काव्य-साधना में रमा ||2||

गोधन-गोठ प्रणाम, कल्प-वृक्ष गौ-नंदिनी |
गोकुल चारो धाम, गोवर्धन-गिरि पूजता ||3||

वेद-काल का साथ, गंगा सिन्धु सरस्वती |
ईरानी हेराथ, सरयू भी समकालिनी ||4||

राम-भक्त हनुमान, सदा विराजे अवधपुर |
सरयू होय नहान, मोक्ष मिले अघकृत तरे ||5||

नदि-करनाली स्रोत्र, मानसरोवर अति-निकट |
करते जप-तप होत्र, महामनस्वी विचरते ||6||

क्रियाशक्ति भरपूर, पावन भू की वन्दना |
राम भक्ति में चूर, मोक्ष प्राप्त कर लो यहाँ ||7||

सरयू अवध प्रदेश, दक्षिण दिश में बस रहा |
हरि-हर ब्रह्म सँदेश, स्वर्ग सरीखा दिव्यतम ||8||

पूज्य अयुध भूपाल, रामचंद्र के पितृ-गण |
गए नींव थे डाल, बसी अयोध्या पावनी ।। 9।।
दोहा 
शुक्ल पक्ष की तिथि नवम, पावन कातिक मास |
करें नगर की परिक्रमा, मन श्रद्धा-विश्वास ||

मर्यादा आदर्श गुण, अपने हृदय उतार |
राम-लखन के सामने, लम्बी लगे कतार |

  पुरुषोत्तम सरयू उतर, होते अंतर्ध्यान |
त्रेता युग का अवध तब, हुआ पूर्ण वीरान |

 सद्प्रयास कुश ने किया, बसी अयोध्या वाह |
 सदगृहस्थ वापस चले, पकड़ अवध की राह |

 आये द्वापर काल में, कृष्ण-रुक्मणी साथ |
वचन निभाने के लिए, कह बैठे रघुनाथ||

व्याह हजारों कृष्ण के, पुरुषोत्तम का एक |
विष्णु रूप दोनों धरे, दोनों लीला नेक ||

कलयुग में सँवरी पुन:, नगरी अवध महान |
वीर विक्रमादित्य से, बढ़ी नगर की शान ||

देवालय फिर से बने, बने सरोवर कूप |
स्वर्ग सरीखा सज रहा, नए अवध का रूप ||
सोरठा  
माया मथुरा साथ, काशी काँची द्वारिका |
महामोक्ष का पाथ, अवंतिका शुभ अवधपुर ||10|| 

अंतरभूमि  प्रवाह, सरयू सरसर वायु सी
संगम तट निर्वाह,  पूज घाघरा शारदा ||11||

पुरखों का इत वास, तीन कोस बस दूर है |
बचपन में ली साँस, यहीं किनारे खेलता ||12||

परिक्रमा श्री धाम, हर फागुन में हो रहा  
पटरंगा मम-ग्राम, चौरासी कोसी परिधि ||13||

थे दशरथ महराज, उन्तालिस निज वंश के |
रथ दुर्लभ अंदाज, दशों दिशा में हांक लें ||14||

पिता-श्रेष्ठ 'अज' भूप, असमय स्वर्ग सिधारते |
 निकृष्ट कथा कुरूप, मातु-पिता चेतो सुजन  ||15||  

 भाग-2   
दशरथ बाल-कथा
घनाक्षरी 

  दीखते हैं मुझे दृश्य मनहर चमत्कारी
कुसुम कलिकाओं से वास तेरी आती है  

कोकिला की कूक में भी स्वर की सुधा सुन्दर  
प्यार की मधुर टेर सारिका सुनाती है

देखूं शशि छबि भव्य  निहारूं अंशु सूर्य की
रंग-छटा उसमे भी तेरी ही दिखाती है

कमनीय कंज कलिका विहस 'रविकर|
तेरे रूप-धूप का ही सुयश फैलाती है || 

दोहा  
इंदुमती के प्रेम में, भूपति अज महराज |
लम्पट विषयी जो हुए, झेले राज अकाज ||1||

गुरु वशिष्ठ की मंत्रणा, सह सुमंत बेकार |
इंदुमती के प्यार ने, दूर किया दरबार ||2|| 

क्रीड़ा सह खिलवाड़ ही, परम सौख्य परितोष
सुन्दरता पागल करे, मन-मानव मदहोश ||3|| 

अति सबकी हरदम बुरी, खान-पान-अभिसार
क्रोध-प्यार बड़-बोल से,  जाय जिंदगी हार ||4||  

झूले  मुग्धा  नायिका, राजा  मारे  पेंग |
वेणी लागे वारुणी,  रही दिखाती  ठेंग ||5||

राज-वाटिका  में  रमे, चार पहर से आय |
तीन-मास के पुत्र को, धाय रही बहलाय ||6||

नारायण-नारायणा,  नारद निधड़क नाद |
अवधपुरी के गगन पर, स्वर्गलोक संवाद ||7||

वीणा से माला सरक, सर पर गिरती आय
 इंदुमती वो अप्सरा, जान हकीकत जाय ।।8||

एक पाप का त्रास वो, यहाँ रही थी भोग |
स्वर्ग-लोक पत्नी गई, अज को परम वियोग ||9||

माँ का पावन रूप भी, उसे सका ना रोक |
तीन मास के लाल को, छोड़ गई इह-लोक ||10||  

विरह वियोगी जा महल, कदम उठाया गूढ़ |
भूल पुत्र को कर लिया, आत्मघात वह मूढ़ ||11| 

कुण्डलियाँ 
उदासीनता की तरफ, बढ़ते जाते पैर
रोको रविकर रोक लो,  जीवन से क्या बैर   
जीवन से क्या बैर, व्यर्थ ही  जीवन त्यागा
किया पुत्र को गैर,  करे क्या पुत्र  अभागा  ?
दर्द हार गम जीत,  व्यथा छल आंसू हाँसी
जीवन के सब तत्व, जियो जग छोड़ उदासी ।। 
 दोहा  
प्रेम-क्षुदित व्याकुल जगत, मांगे प्यार अपार |
जहाँ  कहीं   देना   पड़े, करे व्यर्थ तकरार ||
कुण्डलियाँ 
मरने से जीना कठिन, पर हिम्मत मत हार
 कायर भागे कर्म से, होय नहीं उद्धार  
होय नहीं उद्धार, चलो पर-हित कुछ साधें
 बनिए नहीं लबार, गाँठ जिभ्या पर बांधें
फैले रविकर सत्य, स्वयं पर जय करने से  
 जियो लोक हित मित्र, मिले नहिं कुछ मरने से ।।   
 दोहा  
माता की ममता छली, करता पिता अनाथ |
रोय-रोय शिशु हारता, पटक-पटक के माथ ||12||